महिलाओं ने अपने शिक्षा के साथ सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक समारोह में भागीदारी के अवसर भी खो दिए।

भारत में महिलाएं हर तरह के सामाजिक, धार्मिक, प्रान्तिक परिवेश में हिंसा का शिकार हुई हैं। महिलाओं को भारतीय समाज के द्वारा दी गई हर तरह की क्रूरता को सहन करना पड़ता है चाहे वो घरेलू हो या फिर शारीरिक, सामाजिक, मानसिक, आर्थिक हो। भारत में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को बड़े स्तर पर इतिहास के पन्नों में साफ़ देखा जा सकता है। वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति आज के मुकाबले बहुत सुखद थी पर उसके बाद, समय के बदलने के साथ-साथ महिलाओं के हालातों में भी काफी बदलाव आता चला गया। परिणामस्वरुप हिंसा में होते इज़ाफे के कारण महिलाओं ने अपने शिक्षा के साथ सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक समारोह में भागीदारी के अवसर भी खो दिए।


महिलाओं पर बढ़ते अत्याचारों के कारण उन्हें भरपेट भोजन नहीं दिया जाता था, उन्हें अपने मनपसंद कपड़े पहनने की अनुमति नहीं थी, जबरदस्ती उनका विवाह करवा दिया जाता था, उन्हें गुलाम बना के रखा जाने लगा, वैश्यावृति में धकेला गया। महिलाओं को सीमित तथा आज्ञाकारी बनाने के पीछे पुरुषों की ही सोच थी। पुरुष महिलाओं को एक वस्तु के रूप में देखते थे जिससे वे अपनी पसंद का काम करवा सके। भारतीय समाज में अक्सर ऐसा माना जाता है की हर महिला का पति उसके लिए भगवान समान है।


उन्हें अपने पति की लम्बी उम्र के लिए व्रत रखना चाहिए तथा हर चीज़ के लिए उन्हें अपने पति पर निर्भर रहना चाहिए। पुराने समय में विधवा महिलाओं के दोबारा विवाह पर पाबंदी थी तथा उन्हें सती प्रथा को मानने का दबाव डाला जाता था। महिलाओं को पीटना पुरुष अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते थे। महिलाओं के प्रति हिंसा में तेज़ी तब आई जब नाबालिग लड़कियों को मंदिर में दासी बना कर रखा जाने लगा। इसने धार्मिक जीवन की आड़ में वैश्यावृति को जन्म दिया।


मध्यकालीन युग में इस्लाम और हिन्दू धर्म के टकराव ने महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को बढ़ावा दिया। नाबालिग लड़कियों का बहुत कम उम्र में विवाह कर दिया जाता था और उन्हें हर समय पर्दे में रहने की सख्त हिदायत दी जाती थी। इस कारण महिलाओं के लिए अपने पति तथा परिवार के अलावा बाहरी दुनिया से किसी भी तरह का संपर्क स्थापित करना नामुमकिन था। इसके साथ ही समाज में बहुविवाह प्रथा ने जन्म लिया जिससे महिलाओं को अपने पति का प्यार दूसरी महिलाओं से बांटना पड़ता था।